फासीवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष में सभी लोकतांत्रिक ताकतों की संघर्षशील एकता समय की मांग
सदी का यह तीसरा दशक ऐतिहासिक घटनाओं के लिए याद किया जा रहा है। 20वीं सदी के इसी दशक में गांधी ने कांग्रेस का नेतृत्व संभाला। बाबा साहब ने मनु स्मृति का दहन किया, कम्युनिस्ट पार्टी और आरएसएस की स्थापना हुई। कहना न होगा कि इन चारों घटनाओं ने परवर्ती इतिहास पर युगांतकारी असर डाला। सदी का यह दशक दो संगठनों का शताब्दी वर्ष है, कम्युनिस्ट पार्टी और आरएसएस का। यह देखना सुखद है कि वामपंथी दल आपस में घनिष्ठ संबंध की ओर बढ़ रहे हैं। अभी 23 दिसंबर को 5 दलों ने एक साथ बैठक करके अमित शाह द्वारा डॉ. अम्बेडकर के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी को लेकर संयुक्त अभियान चलाने का फैसला किया है परंतु अगर दोनों की एक सदी की यात्रा पर निगाह डाली जाय तो यह साफ है कि आरएसएस जहां एक कमजोर शुरुआत से आज देश पर एक छत्र राज करने की स्थिति में पहुंची है, वहीं वामपंथी एक अच्छी शुरुआत करने के बावजूद आज राष्ट्रीय राजनीति के हाशिए पर हैं।
गौरतलब है कि 1952 में पहली संसद में कम्युनिस्ट कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में संसद में उभरे थे। उन्हें 16 सीट और RSP, FB, PWP समेत 22 सीट मिली थी जबकि सोशलिस्टों को 12 सीट मिली थी। वहीं हिंदू महासभा और आरएसएस समर्थित जनसंघ के क्रमशः 4 और 3 सांसद ही जीत पाए थे। आज स्थिति एकदम उलट चुकी है। इसके पीछे कौन से कारक जिम्मेदार हैं, यह गंभीर अध्ययन और गवेषणा का विषय है। कुछ कारणों को चिह्नित किया जा सकता है। कम्युनिस्ट पार्टी का बार-बार विभाजन हुआ जबकि आरएसएस और उसके राजनीतिक मंच जनसंघ और भाजपा कमोबेश अविभाजित रहे। कम्युनिस्ट पार्टी में पहला बड़ा विभाजन 1964 में और दूसरा 1969 में हुआ जबकि क्रमशः सीपीआईएम और सीपीआई-एमएल का जन्म हुआ। इन विभाजनों ने निश्चय ही रेडिकल कम्युनिस्ट दिशा में अग्रगति को बनाए रखने में भूमिका निभाई लेकिन विभाजनों ने जो कई बार बेहद वैमनस्यपूर्ण और दुश्मनाना रिश्तों में बदल गये। कम्युनिस्ट आंदोलन की मारक क्षमता और विस्तार पर प्रतिकूल असर डाला। देश की पहली गैर कांग्रेस सरकार केरल में नंबूदरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी की ही बनी थी जिसे केंद्र की कांग्रेस सरकार ने अलोकतांत्रिक ढंग से गिरा दिया था। बाद में सीपीएम पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सरकार बनाने में सफल रही।तेलंगाना, तेभागा और नक्सलबाड़ी में कम्युनिस्टों ने हथियाबंद संघर्षों का भी नेतृत्व किया और अपनी रेडिकल छवि बनाने तथा कुछ इलाकों में समाज के सबसे उत्पीड़ित तबकों के बीच अपना आधार बनाने में सफल रहे। उनसे निकली हुई माओवादी धारा आदिवासियों के बीच सक्रिय है। इसे इतिहास की विडंबना ही कहा जाएगा कि सबसे लोकतंत्र विरोधी फासिस्ट संगठन लोकतंत्र के चैंपियन बनने में सफल रहे लेकिन कम्युनिस्ट इसमें विफल रहे। यह एक बड़ा कारक साबित हुआ जिसका फायदा उठाकर जनसंघ और भाजपा देश के लोकतांत्रिक जनमत की मुख्य धारा में अपनी छवि बनाने में सफल रहे। इसमें पहला अवसर राज्यों में कांग्रेस विरोधी संविद सरकारों का था जिसमें लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की रणनीति के आधार पर जनसंघ को शामिल किया गया। वैसे इसमें कुछ राज्यों में भाकपा भी शामिल थी।
बाद में आपातकाल के दौर में वैसे तो आरएसएस प्रमुख देवरस ने एक तरह से इंदिरा गांधी से माफी मांग कर और सहयोग का वायदा कर आपातकाल की प्रताड़ना से आरएसएस को बचाने की कोशिश की लेकिन कांग्रेस विरोधी जेपी आंदोलन में शामिल होकर और जनसंघ को आपातकाल से उभरी जनता पार्टी में विलय करके वे तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र का अपने को योद्धा साबित करने में सफल रहे।एक तरह से गांधी जी की हत्या के बाद से वे राष्ट्रीय राजनीति में जो अलगाव झेल रहे थे, उससे न सिर्फ उन्हें मुक्ति मिल गई, बल्कि वाजपेयी और आडवाणी जैसे तेजतर्रार मंत्रियों की मदद से अपनी छवि बेहतर बनाने में भी वे सफल हुए। माना जाता है कि भाजपा जिस तरह राज्य की तमाम संस्थाओं में आज कब्जा करने में सफल हुई है, उसकी शुरुआत उसी समय हो गई थी, जब सूचना और प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने मीडिया में अपने लोगों को घुसाना शुरू कर दिया था। बाद में दोहरी सदस्यता के सवाल पर वे जनता पार्टी से अलग हो गए और भाजपा के नए अवतार में सामने आये।
इसके विपरीत विभाजित कम्युनिस्ट आपातकाल के विरुद्ध अपनी कोई विशिष्ट छवि बना पाने में असफल रहे। सीपीआई ने तो आपातकाल का समर्थन ही कर दिया। सीपीएम आपातकाल के विरोध में थी लेकिन उसका प्रभाव कुछ खास इलाकों तक सीमित रहा। सीपीआई-एमएल हथियारबंद लड़ाई लड़ रही थी और वह भूमिगत थी। कुल मिलाकर कम्युनिस्ट धारा तानाशाही बनाम लोकतंत्र की इस लड़ाई में राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रभावी छाप छोड़ने में असफल रही जबकि आरएसएस और उसके जुड़े संगठनों ने इस दौर में एक लंबी छलांग लगाई।वैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरा हिंदू राष्ट्रवादी भावना का कांग्रेस के साथ गोलबंद होने के कारण गांधीवादी समाजवाद के नारे के साथ भाजपा मात्र दो सीटें जीतने में कामयाब हो पाई थी। इससे सटीक निष्कर्ष निकालते हुए आडवाणी ने बाबरी मस्जिद को विदेशी आक्रांता के हमले और भारत के अपमान का प्रतीक बताते हुए राम मंदिर आंदोलन को हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन में तब्दील कर दिया और उससे जमकर चुनावी फसल काटी।
दरअसल इसके बाद भाजपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और वह लगातार आगे बढ़ती गई। न सिर्फ संसदीय मोर्चे पर, बल्कि समाज में अपने कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का वर्चस्व स्थापित करने में कामयाब रही। इसके विपरीत कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद विरोधी प्रगतिशील राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करते हुए एक सच्ची देशभक्त लोकतांत्रिक ताकत के रूप में व्यापक समाज में अपने को स्थापित करने में विफल रहे। दरअसल अंतर्राष्ट्रीयतावाद में विश्वास के कारण कई निर्णायक मौकों पर कम्युनिस्ट अपने देश की परिस्थिति के अनुरूप सही दिशा और लाइन नहीं ले सके। उदाहरण के लिए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से अलग रहना कम्युनिस्टों की भारी भूल साबित हुई जिसके कारण एक देशभक्त ताकत के रूप में अपनी छवि उभारने के एक बड़े अवसर से वे चूक गये।
ठीक इसी तरह 20 के दशक में लोकप्रिय हो रही वर्कर्स एंड पीजेंट पार्टी (WPP) को अंतरराष्ट्रीय संकीर्णतावादी लाइन के दबाव में भंग करना भी एक बड़ी चूक साबित हुई। इससे कम्युनिस्ट पार्टी ने सांगठनिक ढांचे के स्तर पर एक लोकतांत्रिक किसान मजदूर दल/मोर्चे के रूप में उभरने और तमाम लोकतांत्रिक शक्तियों का व्यापक आधार वाला साझा मंच बनने का अवसर खो दिया। वर्ग संघर्ष को जब जहां समग्रता में लिया गया और जाति उत्पीड़न के प्रश्न को उसके अभिन्न अंग के बतौर एड्रेस किया गया तब कम्युनिस्ट आंदोलन ने शानदार और स्थाई सफलता हासिल की। उदाहरण के लिए केरल में समाज सुधार का सवाल कम्युनिस्टों ने वर्ग संघर्ष का हिस्सा बनाया और देश की पहली जनता द्वारा चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार बनाने में सफल रहे और आज तक वहां की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बने हुए हैं। ठीक इसी तरह बिहार में सीपीआई-एमएल ने क्रूर सामंती जुल्म के खिलाफ उत्पीड़ित जातियों के सम्मान और गरिमा को अपने वर्ग संघर्ष के अभिन्न अंग के बतौर एड्रेस किया और एक अंचल में ही सही समाज के सबसे उत्पीड़ित लोगों की अपनी पार्टी बनने में सफल रही जिसके लिए वे अपने प्राण भी न्यौछावर कर सकते थे। उसी के बल पर वह हिंदी पट्टी के राज्य बिहार में एक उल्लेखनीय पार्टी के रूप में उभरने में सफल हुई है।
दरअसल जाति उत्पीड़न का प्रश्न भारतीय समाज में सामंतवाद ब्राह्मणवाद विरोध का ठोस प्रश्न है। इसे छोड़कर महज आर्थिक मांगों पर संघर्ष अर्थवाद में पतित हो जाने के लिए अभिशप्त हैं। जाहिर है एक समग्र वर्ग संघर्ष, जहां उसके समस्त आयामों में उसे ग्रहण किया जाय, कम्युनिस्ट आंदोलन की सफलता की अनिवार्य शर्त है।बहरहाल कम्युनिस्टों की सफलता को केवल उनकी चुनावी सफलता के पैमाने पर नहीं मापा जा सकता। उन्होंने साहित्य, संस्कृति, कला, सामाजिक चेतना, आंदोलन जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। सबसे बड़ी बात उत्पीड़ित जनसमुदाय के संघर्ष और जीत की उम्मीद को उन्होंने जिंदा रखा है। हाल के दिनों में बिहार तथा झारखंड से भाकपा-माले के दो सांसदों तथा 14 विधायकों की जीत हिंदी पट्टी में कम्युनिस्ट अग्रगति की उल्लेखनीय घटना है। जहां तक गांधी द्वारा कांग्रेस का नेतृत्व संभालने का प्रश्न है, वह निश्चय ही आजादी की लड़ाई का निर्णायक मोड़ साबित हुआ, जिससे अंततः 1947 में देश आजाद हुआ। डॉ. अम्बेडकर ने मनु स्मृति का जो दहन किया था, उस विचार प्रक्रिया की चरम परिणति हमारे गणतांत्रिक संविधान निर्माण तथा हिंदू कोड बिल में हुई जिससे अंततः भारत के हर नागरिक को धर्म, जाति, लिंग के भेदभाव से ऊपर उठकर बराबर राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुआ। देश आज फासीवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष से गुजर रहा है, इसमें सभी लोकतांत्रिक ताकतों वामपंथी, कम्युनिस्ट, कांग्रेस, सच्चे अम्बेडकरवादी, सबकी संघर्षशील एकता समय की मांग है।
प्रो. राहुल सिंह
अध्यक्ष उत्तर प्रदेश वाणिज्य परिषद वाराणसी।
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