बच्चे भीख मांगे या अन्य कोई कार्य करके अपना परिवार चलायें तो भी विभाग को कोई दिक्कत नहीं
बच्चे भीख मांगे या अन्य कोई कार्य करके अपना परिवार चलायें तो भी विभाग को कोई दिक्कत नहीं
विशाल रस्तोगी
सीतापुर। पढ़ने लिखने की उम्र मे होटल ढाबों और कारखानों तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों मे काम (मेहनत-मजदूरी) करने वाले बच्चों में अधिकांश ऐसे हैं जिनके सर से पिता का साया उठने के बाद घर मे अपनी माँ तथा छोटे भाई बहनों की परवरिश का जिम्मा उनके मासूम कन्धों पर आ पड़ा है। इनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं जो माता-पिता दोनों को खोने के बाद छोटे भाई बहन के अच्छे भविष्य के लिए मेहनत मजदूरी कर रहे हैं। बहुत से बच्चे ऐसे भी हैं जो कूड़े-कचरे से कबाड़ बीन कर परिवार की रोटी जुटा रहे हैं लेकिन इसके विपरीत एक बड़ी संख्या मे बच्चे भीख मांग कर या चोरी छिनैती जैसे अपराधों को अंजाम देकर परिवार का पेट भर रहे हैं।
यदि श्रम प्रवर्तन अधिकारी की मानें तो विभाग के पास बाल श्रमिकों के कल्याण और उत्थान के लिए कुछ भी नहीं है। शासन स्तर से होने वाली इमदाद ऊँट के मुंह में जीरा जैसी हैं। अधिकारी के अनुसार यदि बच्चा किसी प्रतिष्ठान या कारखाने मे काम कर रहा है तो हमारा काम उसको रेस्कयू कर के बाल संरक्षण गृह भेजना है। बच्चा कचरे के ढेर से कबाड़ बीन रहा है या रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन पर भीख मांग रहा है या चोरी-छिनैती जैसे अपराध कर के परिवार वालों का भरण-पोषण कर रहा है। इसके लिए विभाग की जिम्मेदारी नहीं बनती। इसके लिए पुलिस विभाग जिम्मेदार है। हमारा काम केवल व्यवसायिक प्रतिष्ठानों पर काम कर रहे या कारखानों में काम कर बाल श्रमिकों को मुक्त कराना है। गौरतलब है कि श्रम विभाग का पंजा इन्हीं मेहनतकश बच्चों की गर्दनें पकड़ता है, क्योंकि इनसे काम लेने वाले लोगों से अधिकारियों को मोटी रकम हासिल होती है।
यह जालिम अधिकारी यह बात भली-भांति जानते हैं। व्यवसायी बाल श्रम के नाम पर जो बख्शीश (रिश्वत) उनको देता है। वह पूरी की पूरी गरीब और अनाथ बच्चों की मासिक या दैनिक दिहाड़ी से काट लेता है। अब देखा जाए तो इसमे कारोबारी का कोई नुकसान नहीं है। नुकसान केवल उन गरीब बच्चों का है जो पढ़ने-लिखने की उम्र में मजबूरन काम कर रहे हैं। अनाथ बच्चों की रकम से इन अधिकारियों के घरों के चूल्हे तो जल रहे हैं लेकिन इन गरीब बच्चों के परिवार कैसे पल रहे हैं, इससे इनको कोई मतलब नहीं है। दूसरी तरफ अधिकारी का यह तर्क है कि इन बच्चों को पढ़ने लिखने की उम्र में काम की क्या जरूरत है, सरकार इनकी पढ़ाई के लिए कटिबद्ध है। थोड़ी देर के लिए अधिकारी की बात मान लें तो अब सवाल यह उठता है कि यदि बच्चे पढ़ने जाएंगे तो इनके परिवार का भरण-पोषण कौन करेगा? इस सवाल का जवाब न श्रम अधिकारी के पास है और न ही सरकार के पास।
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