रे मनुष्य…..! तेरा विस्तार कहाँ तक है…? यह जान पाना मेरे लिए भी अब बहुत मुश्किल है…. कभी खुद में उलझा हुआ, कभी जरूरत से ज्यादा सुलझा हुआ….. कभी गाँठो के रूप में कसा हुआ तो कभी खुले धागे सा आबाद मनुष्य तेरी कल्पना की उड़ान…. असीमित है….और…. मेरी उलझन का विषय है…. पत्थरों में भगवान ढूँढना, फिर भगवान को पत्थर बना देना नदी की धार रोक देना या दिशा मोड़ देना….. आसमान में उड़ने की कल्पना साकार कर लेना….. पशु-पक्षियों को भी पालतू बना लेना….. अपनी आदतों को उनमें उतार देना….. नकल की हद तक, नकल उतरवा लेना….. समझ में नहीं आता मुझे मनुष्य तेरा इतना विस्तार होना… कभी साहित्य से विज्ञान की ओर कभी विज्ञान से साहित्य की ओर तेरी इस फंतासी को….मैं तो…. अबूझ और अद्भुत मान चुका हूँ सुनो रे मनुष्य….तुम्हारा इतना… कल्पनाशील हो जाना…. दुनिया के लिए सही है या बेमानी मेरी खुद की समझ परे है…. तू मेरी सोच से…कल्पना से…. बहुत आगे निकल गया है….! मिसगाइडेड मिसाइल की तरह जाने कहाँ वार कर जाओ… जाने कहाँ तुम कहर ढाओ… इस पर भविष्यवाणी करना, अब मेरे लिए भी नादानी है… अब तो मैं भी सोचने पर विवश हूँ क्या कुछ सोच कर रची थी मैंने सृष्टि…और रचा था संसार… बुद्धिमान बनाया था केवल तुमको…..मनुष्य….! क्या मात्र इसलिए कि…. तुम भोग में लिप्त रहो, आत्मतृप्ति के लिए जिओ और दूसरों को मारो-सताओ, उनकी इच्छाओं को दबाओ…! मंगलकामना ध्येय रही, सुखमय संसार की….! कल्पना की थी मैंने…. पर मनुष्य तुम्हारी कल्पना एवं तुम्हारे विस्तार के आगे….. मैं स्वयं को अब बौना पा रहा हूँ पर मनुष्य….. अति सर्वत्र वर्जित है, यह जानते हो तुम…..! इसलिये सुधर जाओ…. अभी भी समय है…वरना…. यह भी जानते हो तुम कि अवतार भी ले सकता हूँ मैं…. अवतार भी ले सकता हूँ मैं…. रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे अपर पुलिस अधीक्षक जनपद-कासगंज
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