कैसे मन भर मैं श्रृंगार करूं…
कैसे मन भर मैं श्रृंगार करूं…
सावन तुम भी ना….!
साजन जैसे झूठे निकले…
जो घर आने का सपन दिखाए
पर घर ना आए अबकी बार
राह तकी मैं रातों-दिन,
करती रही मैं उनका…..!
इंतजार…बस इंतजार…पर…
घर ना आए साजन अबकी बार
यदा-कदा बदली में छिप कर
मुझसे…और मेरे मन से…
सावन तुम भी..! खेले बारम्बार…
पर…तुम भी…झूठे निकले..
ना बरसे अबकी बार……
आस में तेरी सह ली मैंने
सारी तपन बयार…..
रे सावन……
बदली भी तेरी…सौतन निकली
वह भी दिखी ना अबकी बार…
तुझ पर था जो मेरा अभिमान
सब झूठा निकला मेरा ज्ञान…
सखियों संग ना झूल सकी मैं
ना कजरी का कोई गान….
तूम ही बताओ निष्ठुर सावन…!
कैसे कराऊँ साजन को….
मैं कजरारे नैनो का भान….!
भर सावन तुम ना बरसे
कैसे मेरा तन-मन-हिय हरषे….?
देखो तो…मेरे नैना बरस रहे हैं..
निकल रही है काजल की धार….
भला हुआ जो सजन ना आए
नहीं हुआ उनका अपमान….
हरजाई सावन….! तेरे कारण…
रह जाता अधूरा….मेरा प्यार…..
सुना है लोगों से मैंने….!
सावन से ना भादो दूबर….
गर भादो भी झूठा निकल गया,
जो साजन फिर घर ना आया,
फिर श्रृंगार करुँगी किसके ऊपर
जीना मेरा तो…हो जाएगा दूभर…
तुम ही बताओ सावन प्रियवर…
किस पर मैं विश्वास करूँ……?
किस से मन की बात करूं….?
जब……सावन,भादो संग….
साजन भी….झूठा निकले..फिर
किस कारण बालों में गूँथू गजरा..
और क्यों डालूँ आँखों में कजरा…
बिन साजन तो फीका लागे,
घर का पूरा-पूरा सिजरा….
सूखा सावन, परदेश में साजन…
फिर कैसे और किससे …?
मैं अभिसार करूं…नैना चार करूं
एक मजबूरी भी है…..
पालन लोकाचार करूं….!
तुम ही बताओ सावन प्यारे….
कैसे मनभर मैं श्रृंगार करूं…
कैसे मन भर मैं श्रृंगार करूं….
रचनाकार- जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक/क्षेत्राधिकारी नगर
जनपद-जौनपुर।
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