विलायती बुद्धि…..
घनी आबादी वाला चूहा…!
एकदिन… अति-आत्मविश्वास में..
जा पहुँचा बस्ती से दूर… खेतों में..
लहलहाती फसलों के बीच
नाचते-कूदते उसकी भेंट हुई
खेत में खड़े बिजूका से…
मस्ती से वह…. उस पर…
खूब उछला-कूदा, धमाल मचाया,
उसके चिकने सिर पर…
यहाँ तक कि… उसके दिमाग के…
भीतर तक की यात्रा कर ली
हाथ-पाँव सब टटोले
खूब गुदगुदाया…. पर…
नहीं-नहीं…. एकदम नहीं….
यह बिजूका… न कहीं डगमगाया..
ना ही लाठी ही हिलाया-डुलाया…
उसे अब पूरा विश्वास था कि…!
यहाँ तो अपना ही सम्राज्य रहेगा,
यह तो पुतला है.. इससे…
कोई क्यों डरेगा…!
यही सोचते हुए उसने… ढिठाई में,
उसके कुर्ते की जेब भी टटोली….
एक जेब तो फटी थी,
दूसरे में नहीं था एक भी धेला…
उसके चश्मे में… शीशा भी नहीं था
वह देख भी नहीं सकता था.. पर..
अब तो चूहा भी परेशान था
सोचा… एक तो पूरे सीवान में…
यही है अकेला… इसके पास भी…
नहीं है एक भी धेला…मतलब…
यहाँ है… कोई खेला..या फिर…
है कुछ ना कुछ झमेला…!
बस यही वह सोच रहा था कि
एकाएक… टूट पड़ा… तेज़ गति से
सीवान वाले चूहों का रेला…
रूप-रंग, डील-डौल देख
डरकर भाग खड़ा हुआ,
यह चूहा नया नवेला….!
अब तो वह…..
अपनी विलायती बुद्धि…!
जिस पर उसे नाज़ था…
आज खुद ही उस पर वह,
हो रहा नाराज था….
बस सोच रहा था कि….!
अपने गाँव-देश में, अपनी जगह में
मैं तो सरताज़ था….
यहाँ रहकर तो मैं…!
दाने-दाने को मोहताज था…
यहाँ तो अस्तित्व का ही संकट है,
दिख रहा हर ओर झंझट है…
विनम्र भाव से अब कह रहा था…
मित्रों… मान लो मेरा कहना..!
मातृभूमि में… अपनों के बीच…
लुका-छिपी तो मंजूर है…पर…
हर हाल में हमें तो….!
सी ग्रेड सिटीजनशिप से,
रहना बहुत दूर है……
सी ग्रेड सिटीजनशिप से,
रहना बहुत दूर है…….
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद–कासगंज
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