बाढ़ चेतावनी प्रणाली को करें दुरुस्त, मौसमी एवं सदाबहार नदियों को जोड़ें: राज्यपाल

बाढ़ चेतावनी प्रणाली को करें दुरुस्त, मौसमी एवं सदाबहार नदियों को जोड़ें: राज्यपाल

नीरज कुमार
रांची (झारखंड)। झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस ने देश में बाढ़ चेतावनी प्रणाली को दुरुस्त करने एवं अटल बिहारी वाजपेयी के सपनों के अनुरूप मौसमी और सदाबहार नदियों को एक दूसरे से जोड़ने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन से समाज और अर्थव्यवस्था का हर क्षेत्र प्रभावित होता है परंतु इसकी सर्वाधिक मार किसानों पर पड़ती है क्योंकि वे इस परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने की तकनीक और संसाधनों से लैस नहीं हैं। उन्होंने ये बाते रांची के बिरसा कृषि विश्वविद्यालय में गुरुवार को ‘बाढ़ एवं जलाशय अवसादन रोकने के लिए भूदृश्य प्रबन्धन’ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन समारोह के अवसर पर कहा।
राज्यपाल रमेश बैस ने कहा कि गर्मी का रिकॉर्ड टूट रहा है।

वर्ष 2019 अब तक का सबसे गर्म साल रहा जबकि 2010 से 2019 का दशक सबसे गर्म रहा। पूर्वी और उत्तरी राज्यों के अलावा अब राजस्थान में भी बाढ़ आ रही है। आवश्यकता है कि गर्मी में सूख जाने वाली नदियों को बाढ़ वाली नदियों से जोड़ा जाए, ताकि बाढ़ और सुखाड़ से निबटने में सरकारी राशि के खर्च को न्यूनतम किया जा सके। वैज्ञानिकों को किसानों के बीच जाकर उनकी समस्याओं और परिस्थितियों को समझना होगा तथा उन्नत तकनीक और बीज उपलब्ध कराना होगा।
उन्होंने कहा कि कृषि, भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है एवं आजीविका का प्रमुख स्रोत भी है। भारत को गांवों का देश कहा जाता है और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश लोग कृषि कार्य में लगे हुए हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने “भारत को गांवों का देश और कृषि को भारत की आत्मा कहा है।“ आज भारत वैश्विक स्तर पर भारत कृषि उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी देशों में शामिल है।

हमारा देश कृषि के क्षेत्र में न केवल आत्मनिर्भर बनने की दिशा में तेजी से अग्रसर है, बल्कि खाद्यान्न की अपनी जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ अन्य देशों को भी उपलब्ध कराने की दिशा में भी प्रयासरत हैं। राज्यपाल रमेश बैस ने कहा कि भारत में कृषि मुख्यतः मौसम पर आधारित है और जलवायु परिवर्तन की वज़ह से होने वाले मौसमी बदलावों का कृषि पर बेहद असर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से हर क्षेत्र प्रभावित होता है, लेकिन दुर्भाग्यवश किसान के इसकी चपेट में आने की संभावना सबसे अधिक रहती है। जलवायु परिवर्तन के कारण हुई तापमान में वृद्धि होने से सूखा आने से, बाढ़ एवं अन्य घटनाओं जैसे- भूस्खलन, भारी वर्षा, ओलावृष्टि और बादल फटने आदि से भी भारत में कृषि क्षेत्र एवं जनजीवन प्रभावित हो रहा है। भारत उन देशों में शामिल है जिसे जलवायु परिवर्तन से आर्थिक रूप से बहुत ज्यादा नुकसान का सामना करना पड़ता है।

राज्यपाल ने कहा कि वैश्विक स्तर पर बांग्लादेश के बाद भारत दुनिया का सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित देश है। बाढ़ हमारे देश के लिए एक गंभीर समस्या है, जिससे जनजीवन प्रभावित होता है और जानमाल का बहुत नुकसान होता है। देश में कई ऐसे इलाके हैं, जहाँ प्रति वर्ष बाढ़ आती है। भारत में बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, केरल, असम, बिहार, हरियाणा और पंजाब ऐसे राज्य हैं जो बाढ़ से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। इस वर्ष तो सूखे के लिए जाना जाने वाला राजस्थान प्रदेश भी बाढ़ की चपेट में आ गया। बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है जो किसी क्षेत्र में अत्यधिक पानी के जमा होने के कारण होती है। यह अक्सर भारी बारिश का नतीजा है। कई क्षेत्रों को नदी या समुद्र के जल का स्तर बढ़ने के कारण, बांधों के टूटने के कारण और बर्फ की पिघलने के कारण बाढ़ का सामना करना पड़ता है। तटीय क्षेत्रों में तूफान और सूनामी बाढ़ का कारण बनते हैं।

उन्होंने कहा कि आज जरूरत है कि बाढ़ पर नियंत्रण हेतु प्रभावशाली उपायों पर गंभीर मंथन कर उन्हें अपनाने की। बाढ़ की विभीषिका से किस प्रकार जानमाल की क्षति को रोका जाय और कम किया जाय तथा लोगों का आर्थिक नुकसान कम-से-कम हो, इस दिशा में गंभीर प्रयास हों। जो भी छोटी-बड़ी नदियाँ हैं तथा बड़ी नदियों की सहायक नदियाँ हैं, उन सभी पर मजबूत बांध के निर्माण से मुख्य नदी में बाढ़ के खतरे को कम करने के साथ नदियों के जो ऊपरी जल संग्रहण क्षेत्र हैं, वहाँ पर वृक्षारोपण किया जाना चाहिए क्योंकि वृक्ष पानी को सोखते हैं और बाढ़ के प्रभाव को कम करते हैं। हमारे कृषि वैज्ञानिकों वृक्षारोपण के लिए लोगों को प्रेरित करने का प्रयास करना चाहिए।
सम्मेलन में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ ओंकार नाथ सिंह ने बीएयू की प्रमुख गतिविधियां और उपलब्धियों पर प्रकाश डाला और कहा कि झारखंड में मृदा अपरदन की समस्या बढ़ती जा रही है जिससे प्रतिवर्ष बड़ी मात्रा में उपजाऊ मिट्टी बर्बाद हो रही है। उन्होंने कहा कि असम और मेघालय के बाद सर्वाधिक वर्षा झारखंड में होती है। आवश्यकता है उस वर्षा जल के समुचित प्रबंधन की। उन्होंने कहा कि इस सम्मेलन की अनुशंसाओं से केंद्र एवं राज्य सरकारों को लाभकारी कृषि योजना बनाने में मदद मिलेगी।
झारखंड के ग्रामीण विकास सचिव डॉ मनीष रंजन ने कहा कि दुनिया की 52% भूमि और दक्षिण एशिया की 78% भूमि डिग्रेडेशन से प्रभावित है। इससे उत्पादन और संस्कृति का क्षरण तो हो ही रहा है खाद्य सुरक्षा भी प्रभावित हो रही है और गरीबों का पलायन बढ़ रहा है। भूमि एवं जल संरक्षण के प्रयासों को जन आंदोलन का रूप देना होगा और इसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग जैसी नवीनतम सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना होगा।

अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान के कंट्री रिप्रेजेंटेटिव और आईसीआर के पूर्व उप महानिदेशक (प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन) डॉ एके सिक्का ने कहा कि भूमि और जल, दोनों प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए एकीकृत प्रयास करना होगा। सेडिमेंटेशन बढ़ने से जलाशयों की भंडारण क्षमता कम हो रही है और नदियों से बार-बार बाढ़ आ रही है। इसका प्रकृति आधारित समाधान ढूंढना होगा। भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान, देहरादून के निदेशक डॉ एम मधु भी मंच पर उपस्थित थे।
सम्मेलन में पलामू के प्रमंडलीय आयुक्त डॉ जटाशंकर चौधरी, डॉ केपी गोरे, डॉ टीके सरकार, डॉ सीपी रेड्डी सहित लगभग 20 लोगों को प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में उनके विशिष्ट योगदान के लिए पुरस्कार प्रदान किया गया।

इसकी घोषणा आयोजक सोसाइटी के अध्यक्ष डॉ पीआर ओजस्वी ने की। सम्मेलन में आईसीएआर के विभिन्न शोध संस्थानों, कृषि विश्वविद्यालयों, केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और अन्य स्वायत्तशासी संस्थानों के 300 से अधिक वैज्ञानिक एवं पदाधिकारी भाग ले रहे हैं। सम्मेलन का आयोजन इंडियन एसोसिएशन ऑफ सॉइल एंड वॉटर कंजर्वेशनिस्ट्स (भारतीय मृदा एवं जल संरक्षणविद संघ), देहरादून द्वारा भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान, देहरादून; बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची; महात्मा गांधी समेकित कृषि अनुसंधान संस्थान, मोतिहारी और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, हजारीबाग, दामोदर घाटी निगम, हजारीबाग तथा झारखंड सरकार के मृदा संरक्षण निदेशालय और झारखंड राज्य वाटरशेड मिशन के सहयोग से किया जा रहा है। सम्मेलन के आयोजन सचिव भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ गोपाल कुमार और डॉ देवाशीष मंडल हैं।

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