Article : यूपी फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? | #TEJASTODAY

Article : यूपी फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? | #TEJASTODAY

Article : यूपी फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? | #TEJASTODAY फिरहाल, यूपी में फिल्म सिटी के निर्माण की बातें कहकर योगी आदित्यनाथ ने उन सितारों की हसरत पूरी कर दी, जो बरसों से ये आवाज उठा रहे थे कि हमारे सूबे में ही हमारे सिनेमा का सबसे बड़ा मंच हो। ताकि हमें किसी दूसरी जगह जाकर भेदभाव का शिकार न होना पड़े। अब जब ये ऐलान हुआ है तो अपनी माटी से जुड़े सितारे तो खुश हैं ही, यूपी के लोग भी गदगद है। उनका मानना हे कि इससे फिल्मी दुनिया का विस्तार होगा, रोजगार बढ़ेगा। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या यूपी फिल्म सीटी से बढ़ेगी हिन्दी की ताकत? क्या बॉलीवुड का बटवारा होगा? क्या हिंदी फिल्मों के लिए जमीन भी हिंदी चाहिए? क्या यूपी की फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? क्या मुंबई के लिए चुनौती बन सकती है यूपी की फिल्म सिटी?  नई फिल्म सिटी से बॉलीवुड के झगड़े का होगा निपटारा? सुरेश गांधी हो जो भी हकीकत तो यही है कि अभिनेता सुशांत सिंह की मौत के बाद बॉलीवुड में चल रही खेमेबंदी और उठापटक को देखते हुए यूपी सरकार के अगुआ योगी आदित्यनाथ की से बड़ी फिल्म सिटी बनाने की घोषणा काफी कारगर साबित हो सकती है। राजनीतिक लिहाज से भी बॉलीवुड में ड्रग एंगल पर देशव्यापी चर्चा और महाराष्ट्र में मचे बवाल के बीच योगी का यह बड़ा दांव है। या यूं कहे योगी का ये ऐलान यूपी सहित पूरे उत्तर भारत के फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के लिए बड़ी सौगात हैं। देखा जाएं तो हाल के दिनों में चाहे वो छोटे शहरों की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में रही हो या भोजपुरी फिल्में काफी सफल रही हैं। इस लिहाज से भी यूपी में फिल्म सिटी के लिए काफी संभावनाएं हैं। खास बात यह है कि यूपी में फिल्म सिटी बनने से प्रदेश समेत पूरे उत्तर भारत के नए कलाकारों को भेदभाव का शिकार नहीं होना पड़ेगा। उन्हें मुंबई की बाॅलीवूड के नेपोटिज्म का कोपभाजन नहीं बनना पडेगा। अभिनेत्रियों को मीट-टू का दंश नहीं झेलना पड़ेगा। कैरियर खत्म कर देने वाली ड्रग्स के लत से मुक्ति मिलेगी। हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा। लोग अपनी माटी, अपन संस्कृति, अपनी दिनचर्या व क्षेत्रीय धरोहरों, किसानों, बलिदानियों, स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को उसी अंदाज में रुपहले पर्दे पर देख सकंेंगे। फिल्म सिटी बनने के बाद फिल्म से जुड़े कई लोगों को रोजगार मिलेगा। एक डिजाइनर होंगे, फिल्म आर्टिस्ट होंगे, लेखन से जुड़े लोग होंगे, डायरेक्टर प्रोड्यूसर होंगे, रोजगार का बहुत बड़ा माध्यम होगा। हिंदी पट्टी में फिल्म सिटी आने से पर्यटन को तो बढ़ावा मिलेगा ही, नई-नई प्रतिभाओं को भी संवरने को मौका मिलेगा। वैसे भी फिल्म निर्माता-निर्देशकों को शूटिंग के लिए राजस्थान की ऐतिहासिक इमारतें, उत्तराखंड की पहाड़ी वादियां और पंजाब के हरे-भरे खेत सहज ही आकर्षित करते हैं। चाहे काशी के घाट हो, चुनार का किला हो या आगरा का ताजमहल और आसपास का इलाका हो पूरे भारत की शान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या भी उन्हें लुभाता है। ऐसे में यमुना एक्सप्रेस-वे, ग्रेटर नोएडा व नोएडा के इर्द-गिर्द फिल्म सिटी बनने से निर्माता-निर्देशकों को उनकी पसंदीदा जगहों के लिए सीधा एप्रोच होने की वजह से उन्हें सुविधा भी रहेगी। बता दें, दिल्ली से जुड़े नोएडा, ग्रेटर नोएडा व यमुना एक्सप्रेस-वे पर प्रस्तावित बड़ी फिल्म सिटी के अलावा लखनऊ, वाराणसी व आगरा में से किसी जगह एक अन्य छोटे आकार की फिल्म सिटी की स्थापना भी की जा सकती है। यह फिल्म सिटी 200-250 एकड़ में बनाने की योजना है। आगरा में पहले एक फिल्म सिटी का निर्माण प्रस्तावित था। इसके लिए यूपीसीडा ने जमीन भी चिह्नित कर ली थी। इसका भी परीक्षण कराया जा रहा है। वाराणसी में पर्यटन विभाग की खाली पड़ी जमीन पर फिल्म सिटी बनाने के संबंध में अध्ययन कराया जा रहा है। लखनऊ के आसपास भी स्थान देखा जा रहा है। इसके लिए निर्माता, निर्देशक, कलाकार तथा फिल्म निर्माण से संबंधित अन्य लोगों के सुझावों के आधार पर फिल्म सिटी को मूर्त रूप देने की तैयारी है। फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि दिल्ली से नजदीक होने के कारण नोएडा, ग्रेटर नोएडा या यमुना एक्सप्रेस-वे पर फिल्म सिटी का निर्माण तो फायदेमंद रहेगा ही, जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट भी इसमें खासा मददगार साबित होगा। गौर करने वाली बात यह है कि नई फिल्म नीति के तहत प्रदेश में फिल्म निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार की ओर से कई सहूलियतें दी जा रही हैं। प्रदेश में बनने वाली हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को लागत का 25 प्रतिशत या अधिकतम दो करोड़ रुपये अनुदान दिया जाता है। क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के लिए 50 प्रतिशत अनुदान का प्रावधान है। फिल्म में अगर प्रदेश के पांच कलाकार हैं तो 25 लाख रुपये अतिरिक्त व सभी कलाकार प्रदेश के हैं तो 50 लाख रुपये अतिरिक्त देने का प्रावधान है। इसके अलावा शूटिंग की अनुमति के लिए जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में कमेटी गठित है। पर्यटन विभाग के होटलों व अन्य संपत्तियों में 25 प्रतिशत छूट की व्यवस्था है। प्रदेश में फिल्म निर्माण पर हर साल 150 से 200 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। फिल्म बंधु के सूत्रों के मुताबिक प्रदेश में डेढ़ करोड़ से लेकर 40-50 करोड़ रुपये तक के बजट की फिल्मों का निर्माण हो रहा है। योगी सरकार में 2017 से लेकर अब तक 38 फिल्मों को लगभग 21 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया है। जहां तक बॉलीवुड में नेपोटिज्म का सवाल है तो पहले भी ऐसा देखने को मिला है और छुट-पुट विरोध होता रहा है। मगर ऐसा कभी भी देखने को नहीं मिला कि विवाद इतना बढ़ गया हो कि इंडस्ट्री में इनसाइडर और आउटसाइडर दो गुटों में बंटे नजर आए हों। खासकर सुशांत सिंह राजपूत के निधन ने सभी को हिला कर रख दिया है। अब बॉलीवुड में आउटसाइडर्स के संघर्ष को देखते हुए योगी की घोषणा जरुर रंग लायेगी। उनका यह कदम सकारात्मक है। जो लोग बिहार-उत्तर प्रदेश-झारखंड नॉर्थ के हिंदी बेल्ट के हैं उनके लिए तो वरदान साबित होगा। युवाओं को काम मिलेगा। लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा। इस भव्य फिल्म सिटी में एक ही छत के नीचे पूरी यूनिट होगी। पोस्ट प्रोडेक्शन से लेकर होटल तक सबकुछ होगा। लाखों लोग इससे डायरेक्टली और इनडायरेक्टली जुड़ेंगे। जिस हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड साढ़ें पांच लाख लोगों को रोजगार देती है, वो अब उत्तर भारतीयों को मिलेगा। उनकी अपनी इंडस्ट्री होगी। यह फिल्म सिटी फिल्म निर्माताओं को एक बेहतर विकल्प उपलब्ध कराएगी। आपकों जानकर दुख होगा कि आजकल बॉलीवुड में थाली पर जंग छिड़ी हुई है। लेकिन जनता की थाली में भोजन देने वाले किसान का जिक्र नहीं होता। जबकि बॉलीवुड का किसानों से पुराना नाता रहा है। बड़े-बड़े फिल्म अभिनेताओं ने किसानों की भूमिका निभाकर देश की जनता की खूब तालियां बटोरी हैं। इन्हीं किसानों की लीला से मुंबई में अपने आलीशान बंगले खड़े किए हैं। लेकिन अन्नदाता का हाल वैसा का वैसा है। क्योंकि ये कैमरे के सामने एकिं्टग नहीं करते। कई फिल्मों में किसानों के मुद्दे को बहुत प्रभावी तरीके से दिखाया गया है। वर्ष 1953 में किसानों की समस्या पर ’दो बीघा ज़मीन’ नामक एक फिल्म बनी थी। इसमें साहूकार के कर्ज से परेशान किसानों की हालत को दिखाया गया था। इसके बाद वर्ष 1957 में किसानों के हालात पर अपने जमाने की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम था मदर इंडिया। हमारे देश में किसान और उसका पूरा परिवार ब्याज, गरीबी और मेहनत के कभी ना ख़त्म होने वाले चक्रव्यूह में फंसा रहता है। इस फिल्म ने किसानों की इसी मजबूरी को चित्रित किया। वर्ष 1967 में अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म उपकार में भी किसानों की दुर्दशा दिखाई गई। इस फिल्म का नायक किसान है और वो हमेशा गरीबी से ही जूझता रहता है। वर्ष 2001 में आजादी से पहले किसानों से लगान वसूलने की समस्या पर बनी एक फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम लगान था। लोगों ने इस फिल्म को बहुत पसंद किया और फिल्म को ऑस्कर नॉमिनेशन भी मिला था। पुराने जमाने में किसानों के मुद्दे और गांवों में साहूकार जैसी समस्याएं भारतीयों फिल्मों की पटकथाओं का हिस्सा रही थीं। लेकिन बदलते वक्त के साथ अब ये परंपरा बंद हो चुकी है। इसलिए किसानों का मुद्दा खबरों के साथ-साथ फिल्मों से भी गायब होता जा रहा है। परन्तु नयी फिल्म सिटी में क्षेत्रीय कलाकारों द्वारा बनने वाली फिल्मों में अब फिर सेसबकुछ देखने को मिल सकता है। ऐसा नहीं है कि बाॅलीवूड को नहीं पता है कि सरकारी मंडियों में किसानों के साथ क्या हो रहा है?
फिरहाल, यूपी में फिल्म सिटी के निर्माण की बातें कहकर योगी आदित्यनाथ ने उन सितारों की हसरत पूरी कर दी, जो बरसों से ये आवाज उठा रहे थे कि हमारे सूबे में ही हमारे सिनेमा का सबसे बड़ा मंच हो। ताकि हमें किसी दूसरी जगह जाकर भेदभाव का शिकार न होना पड़े। अब जब ये ऐलान हुआ है तो अपनी माटी से जुड़े सितारे तो खुश हैं ही, यूपी के लोग भी गदगद है। उनका मानना हे कि इससे फिल्मी दुनिया का विस्तार होगा, रोजगार बढ़ेगा। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या यूपी फिल्म सीटी से बढ़ेगी हिन्दी की ताकत? क्या बॉलीवुड का बटवारा होगा? क्या हिंदी फिल्मों के लिए जमीन भी हिंदी चाहिए? क्या यूपी की फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? क्या मुंबई के लिए चुनौती बन सकती है यूपी की फिल्म सिटी?नई फिल्म सिटी से बॉलीवुड के झगड़े का होगा निपटारा?
सुरेश गांधी
हो जो भी हकीकत तो यही है कि अभिनेता सुशांत सिंह की मौत के बाद बॉलीवुड में चल रही खेमेबंदी और उठापटक को देखते हुए यूपी सरकार के अगुआ योगी आदित्यनाथ की से बड़ी फिल्म सिटी बनाने की घोषणा काफी कारगर साबित हो सकती है। राजनीतिक लिहाज से भी बॉलीवुड में ड्रग एंगल पर देशव्यापी चर्चा और महाराष्ट्र में मचे बवाल के बीच योगी का यह बड़ा दांव है। या यूं कहे योगी का ये ऐलान यूपी सहित पूरे उत्तर भारत के फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के लिए बड़ी सौगात हैं। देखा जाएं तो हाल के दिनों में चाहे वो छोटे शहरों की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में रही हो या भोजपुरी फिल्में काफी सफल रही हैं।

Article : यूपी फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? | #TEJASTODAY  फिरहाल, यूपी में फिल्म सिटी के निर्माण की बातें कहकर योगी आदित्यनाथ ने उन सितारों की हसरत पूरी कर दी, जो बरसों से ये आवाज उठा रहे थे कि हमारे सूबे में ही हमारे सिनेमा का सबसे बड़ा मंच हो। ताकि हमें किसी दूसरी जगह जाकर भेदभाव का शिकार न होना पड़े। अब जब ये ऐलान हुआ है तो अपनी माटी से जुड़े सितारे तो खुश हैं ही, यूपी के लोग भी गदगद है। उनका मानना हे कि इससे फिल्मी दुनिया का विस्तार होगा, रोजगार बढ़ेगा। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या यूपी फिल्म सीटी से बढ़ेगी हिन्दी की ताकत? क्या बॉलीवुड का बटवारा होगा? क्या हिंदी फिल्मों के लिए जमीन भी हिंदी चाहिए? क्या यूपी की फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? क्या मुंबई के लिए चुनौती बन सकती है यूपी की फिल्म सिटी?  नई फिल्म सिटी से बॉलीवुड के झगड़े का होगा निपटारा? सुरेश गांधी हो जो भी हकीकत तो यही है कि अभिनेता सुशांत सिंह की मौत के बाद बॉलीवुड में चल रही खेमेबंदी और उठापटक को देखते हुए यूपी सरकार के अगुआ योगी आदित्यनाथ की से बड़ी फिल्म सिटी बनाने की घोषणा काफी कारगर साबित हो सकती है। राजनीतिक लिहाज से भी बॉलीवुड में ड्रग एंगल पर देशव्यापी चर्चा और महाराष्ट्र में मचे बवाल के बीच योगी का यह बड़ा दांव है। या यूं कहे योगी का ये ऐलान यूपी सहित पूरे उत्तर भारत के फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के लिए बड़ी सौगात हैं। देखा जाएं तो हाल के दिनों में चाहे वो छोटे शहरों की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में रही हो या भोजपुरी फिल्में काफी सफल रही हैं।   इस लिहाज से भी यूपी में फिल्म सिटी के लिए काफी संभावनाएं हैं। खास बात यह है कि यूपी में फिल्म सिटी बनने से प्रदेश समेत पूरे उत्तर भारत के नए कलाकारों को भेदभाव का शिकार नहीं होना पड़ेगा। उन्हें मुंबई की बाॅलीवूड के नेपोटिज्म का कोपभाजन नहीं बनना पडेगा। अभिनेत्रियों को मीट-टू का दंश नहीं झेलना पड़ेगा। कैरियर खत्म कर देने वाली ड्रग्स के लत से मुक्ति मिलेगी। हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा। लोग अपनी माटी, अपन संस्कृति, अपनी दिनचर्या व क्षेत्रीय धरोहरों, किसानों, बलिदानियों, स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को उसी अंदाज में रुपहले पर्दे पर देख सकंेंगे। फिल्म सिटी बनने के बाद फिल्म से जुड़े कई लोगों को रोजगार मिलेगा। एक डिजाइनर होंगे, फिल्म आर्टिस्ट होंगे, लेखन से जुड़े लोग होंगे, डायरेक्टर प्रोड्यूसर होंगे, रोजगार का बहुत बड़ा माध्यम होगा। हिंदी पट्टी में फिल्म सिटी आने से पर्यटन को तो बढ़ावा मिलेगा ही, नई-नई प्रतिभाओं को भी संवरने को मौका मिलेगा।  वैसे भी फिल्म निर्माता-निर्देशकों को शूटिंग के लिए राजस्थान की ऐतिहासिक इमारतें, उत्तराखंड की पहाड़ी वादियां और पंजाब के हरे-भरे खेत सहज ही आकर्षित करते हैं। चाहे काशी के घाट हो, चुनार का किला हो या आगरा का ताजमहल और आसपास का इलाका हो पूरे भारत की शान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या भी उन्हें लुभाता है। ऐसे में यमुना एक्सप्रेस-वे, ग्रेटर नोएडा व नोएडा के इर्द-गिर्द फिल्म सिटी बनने से निर्माता-निर्देशकों को उनकी पसंदीदा जगहों के लिए सीधा एप्रोच होने की वजह से उन्हें सुविधा भी रहेगी। बता दें, दिल्ली से जुड़े नोएडा, ग्रेटर नोएडा व यमुना एक्सप्रेस-वे पर प्रस्तावित बड़ी फिल्म सिटी के अलावा लखनऊ, वाराणसी व आगरा में से किसी जगह एक अन्य छोटे आकार की फिल्म सिटी की स्थापना भी की जा सकती है।   यह फिल्म सिटी 200-250 एकड़ में बनाने की योजना है। आगरा में पहले एक फिल्म सिटी का निर्माण प्रस्तावित था। इसके लिए यूपीसीडा ने जमीन भी चिह्नित कर ली थी। इसका भी परीक्षण कराया जा रहा है। वाराणसी में पर्यटन विभाग की खाली पड़ी जमीन पर फिल्म सिटी बनाने के संबंध में अध्ययन कराया जा रहा है। लखनऊ के आसपास भी स्थान देखा जा रहा है। इसके लिए निर्माता, निर्देशक, कलाकार तथा फिल्म निर्माण से संबंधित अन्य लोगों के सुझावों के आधार पर फिल्म सिटी को मूर्त रूप देने की तैयारी है। फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि दिल्ली से नजदीक होने के कारण नोएडा, ग्रेटर नोएडा या यमुना एक्सप्रेस-वे पर फिल्म सिटी का निर्माण तो फायदेमंद रहेगा ही, जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट भी इसमें खासा मददगार साबित होगा।  गौर करने वाली बात यह है कि नई फिल्म नीति के तहत प्रदेश में फिल्म निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार की ओर से कई सहूलियतें दी जा रही हैं। प्रदेश में बनने वाली हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को लागत का 25 प्रतिशत या अधिकतम दो करोड़ रुपये अनुदान दिया जाता है। क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के लिए 50 प्रतिशत अनुदान का प्रावधान है। फिल्म में अगर प्रदेश के पांच कलाकार हैं तो 25 लाख रुपये अतिरिक्त व सभी कलाकार प्रदेश के हैं तो 50 लाख रुपये अतिरिक्त देने का प्रावधान है।   इसके अलावा शूटिंग की अनुमति के लिए जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में कमेटी गठित है। पर्यटन विभाग के होटलों व अन्य संपत्तियों में 25 प्रतिशत छूट की व्यवस्था है। प्रदेश में फिल्म निर्माण पर हर साल 150 से 200 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। फिल्म बंधु के सूत्रों के मुताबिक प्रदेश में डेढ़ करोड़ से लेकर 40-50 करोड़ रुपये तक के बजट की फिल्मों का निर्माण हो रहा है। योगी सरकार में 2017 से लेकर अब तक 38 फिल्मों को लगभग 21 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया है।    जहां तक बॉलीवुड में नेपोटिज्म का सवाल है तो पहले भी ऐसा देखने को मिला है और छुट-पुट विरोध होता रहा है। मगर ऐसा कभी भी देखने को नहीं मिला कि विवाद इतना बढ़ गया हो कि इंडस्ट्री में इनसाइडर और आउटसाइडर दो गुटों में बंटे नजर आए हों। खासकर सुशांत सिंह राजपूत के निधन ने सभी को हिला कर रख दिया है। अब बॉलीवुड में आउटसाइडर्स के संघर्ष को देखते हुए योगी की घोषणा जरुर रंग लायेगी। उनका यह कदम सकारात्मक है। जो लोग बिहार-उत्तर प्रदेश-झारखंड नॉर्थ के हिंदी बेल्ट के हैं उनके लिए तो वरदान साबित होगा। युवाओं को काम मिलेगा। लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा। इस भव्य फिल्म सिटी में एक ही छत के नीचे पूरी यूनिट होगी। पोस्ट प्रोडेक्शन से लेकर होटल तक सबकुछ होगा।   लाखों लोग इससे डायरेक्टली और इनडायरेक्टली जुड़ेंगे। जिस हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड साढ़ें पांच लाख लोगों को रोजगार देती है, वो अब उत्तर भारतीयों को मिलेगा। उनकी अपनी इंडस्ट्री होगी। यह फिल्म सिटी फिल्म निर्माताओं को एक बेहतर विकल्प उपलब्ध कराएगी।    आपकों जानकर दुख होगा कि आजकल बॉलीवुड में थाली पर जंग छिड़ी हुई है। लेकिन जनता की थाली में भोजन देने वाले किसान का जिक्र नहीं होता। जबकि बॉलीवुड का किसानों से पुराना नाता रहा है। बड़े-बड़े फिल्म अभिनेताओं ने किसानों की भूमिका निभाकर देश की जनता की खूब तालियां बटोरी हैं। इन्हीं किसानों की लीला से मुंबई में अपने आलीशान बंगले खड़े किए हैं। लेकिन अन्नदाता का हाल वैसा का वैसा है। क्योंकि ये कैमरे के सामने एकिं्टग नहीं करते। कई फिल्मों में किसानों के मुद्दे को बहुत प्रभावी तरीके से दिखाया गया है। वर्ष 1953 में किसानों की समस्या पर ’दो बीघा ज़मीन’ नामक एक फिल्म बनी थी। इसमें साहूकार के कर्ज से परेशान किसानों की हालत को दिखाया गया था। इसके बाद वर्ष 1957 में किसानों के हालात पर अपने जमाने की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम था मदर इंडिया। हमारे देश में किसान और उसका पूरा परिवार ब्याज, गरीबी और मेहनत के कभी ना ख़त्म होने वाले चक्रव्यूह में फंसा रहता है।  इस फिल्म ने किसानों की इसी मजबूरी को चित्रित किया। वर्ष 1967 में अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म उपकार में भी किसानों की दुर्दशा दिखाई गई। इस फिल्म का नायक किसान है और वो हमेशा गरीबी से ही जूझता रहता है। वर्ष 2001 में आजादी से पहले किसानों से लगान वसूलने की समस्या पर बनी एक फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम लगान था। लोगों ने इस फिल्म को बहुत पसंद किया और फिल्म को ऑस्कर नॉमिनेशन भी मिला था। पुराने जमाने में किसानों के मुद्दे और गांवों में साहूकार जैसी समस्याएं भारतीयों फिल्मों की पटकथाओं का हिस्सा रही थीं। लेकिन बदलते वक्त के साथ अब ये परंपरा बंद हो चुकी है। इसलिए किसानों का मुद्दा खबरों के साथ-साथ फिल्मों से भी गायब होता जा रहा है। परन्तु नयी फिल्म सिटी में क्षेत्रीय कलाकारों द्वारा बनने वाली फिल्मों में अब फिर सेसबकुछ देखने को मिल सकता है। ऐसा नहीं है कि बाॅलीवूड को नहीं पता है कि सरकारी मंडियों में किसानों के साथ क्या हो रहा है?

इस लिहाज से भी यूपी में फिल्म सिटी के लिए काफी संभावनाएं हैं। खास बात यह है कि यूपी में फिल्म सिटी बनने से प्रदेश समेत पूरे उत्तर भारत के नए कलाकारों को भेदभाव का शिकार नहीं होना पड़ेगा। उन्हें मुंबई की बाॅलीवूड के नेपोटिज्म का कोपभाजन नहीं बनना पडेगा। अभिनेत्रियों को मीट-टू का दंश नहीं झेलना पड़ेगा। कैरियर खत्म कर देने वाली ड्रग्स के लत से मुक्ति मिलेगी। हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा। लोग अपनी माटी, अपन संस्कृति, अपनी दिनचर्या व क्षेत्रीय धरोहरों, किसानों, बलिदानियों, स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को उसी अंदाज में रुपहले पर्दे पर देख सकंेंगे। फिल्म सिटी बनने के बाद फिल्म से जुड़े कई लोगों को रोजगार मिलेगा। एक डिजाइनर होंगे, फिल्म आर्टिस्ट होंगे, लेखन से जुड़े लोग होंगे, डायरेक्टर प्रोड्यूसर होंगे, रोजगार का बहुत बड़ा माध्यम होगा। हिंदी पट्टी में फिल्म सिटी आने से पर्यटन को तो बढ़ावा मिलेगा ही, नई-नई प्रतिभाओं को भी संवरने को मौका मिलेगा।

Article : यूपी फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? | #TEJASTODAY  फिरहाल, यूपी में फिल्म सिटी के निर्माण की बातें कहकर योगी आदित्यनाथ ने उन सितारों की हसरत पूरी कर दी, जो बरसों से ये आवाज उठा रहे थे कि हमारे सूबे में ही हमारे सिनेमा का सबसे बड़ा मंच हो। ताकि हमें किसी दूसरी जगह जाकर भेदभाव का शिकार न होना पड़े। अब जब ये ऐलान हुआ है तो अपनी माटी से जुड़े सितारे तो खुश हैं ही, यूपी के लोग भी गदगद है। उनका मानना हे कि इससे फिल्मी दुनिया का विस्तार होगा, रोजगार बढ़ेगा। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या यूपी फिल्म सीटी से बढ़ेगी हिन्दी की ताकत? क्या बॉलीवुड का बटवारा होगा? क्या हिंदी फिल्मों के लिए जमीन भी हिंदी चाहिए? क्या यूपी की फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? क्या मुंबई के लिए चुनौती बन सकती है यूपी की फिल्म सिटी?  नई फिल्म सिटी से बॉलीवुड के झगड़े का होगा निपटारा? सुरेश गांधी हो जो भी हकीकत तो यही है कि अभिनेता सुशांत सिंह की मौत के बाद बॉलीवुड में चल रही खेमेबंदी और उठापटक को देखते हुए यूपी सरकार के अगुआ योगी आदित्यनाथ की से बड़ी फिल्म सिटी बनाने की घोषणा काफी कारगर साबित हो सकती है। राजनीतिक लिहाज से भी बॉलीवुड में ड्रग एंगल पर देशव्यापी चर्चा और महाराष्ट्र में मचे बवाल के बीच योगी का यह बड़ा दांव है। या यूं कहे योगी का ये ऐलान यूपी सहित पूरे उत्तर भारत के फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के लिए बड़ी सौगात हैं। देखा जाएं तो हाल के दिनों में चाहे वो छोटे शहरों की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में रही हो या भोजपुरी फिल्में काफी सफल रही हैं।   इस लिहाज से भी यूपी में फिल्म सिटी के लिए काफी संभावनाएं हैं। खास बात यह है कि यूपी में फिल्म सिटी बनने से प्रदेश समेत पूरे उत्तर भारत के नए कलाकारों को भेदभाव का शिकार नहीं होना पड़ेगा। उन्हें मुंबई की बाॅलीवूड के नेपोटिज्म का कोपभाजन नहीं बनना पडेगा। अभिनेत्रियों को मीट-टू का दंश नहीं झेलना पड़ेगा। कैरियर खत्म कर देने वाली ड्रग्स के लत से मुक्ति मिलेगी। हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा। लोग अपनी माटी, अपन संस्कृति, अपनी दिनचर्या व क्षेत्रीय धरोहरों, किसानों, बलिदानियों, स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को उसी अंदाज में रुपहले पर्दे पर देख सकंेंगे। फिल्म सिटी बनने के बाद फिल्म से जुड़े कई लोगों को रोजगार मिलेगा। एक डिजाइनर होंगे, फिल्म आर्टिस्ट होंगे, लेखन से जुड़े लोग होंगे, डायरेक्टर प्रोड्यूसर होंगे, रोजगार का बहुत बड़ा माध्यम होगा। हिंदी पट्टी में फिल्म सिटी आने से पर्यटन को तो बढ़ावा मिलेगा ही, नई-नई प्रतिभाओं को भी संवरने को मौका मिलेगा।  वैसे भी फिल्म निर्माता-निर्देशकों को शूटिंग के लिए राजस्थान की ऐतिहासिक इमारतें, उत्तराखंड की पहाड़ी वादियां और पंजाब के हरे-भरे खेत सहज ही आकर्षित करते हैं। चाहे काशी के घाट हो, चुनार का किला हो या आगरा का ताजमहल और आसपास का इलाका हो पूरे भारत की शान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या भी उन्हें लुभाता है। ऐसे में यमुना एक्सप्रेस-वे, ग्रेटर नोएडा व नोएडा के इर्द-गिर्द फिल्म सिटी बनने से निर्माता-निर्देशकों को उनकी पसंदीदा जगहों के लिए सीधा एप्रोच होने की वजह से उन्हें सुविधा भी रहेगी। बता दें, दिल्ली से जुड़े नोएडा, ग्रेटर नोएडा व यमुना एक्सप्रेस-वे पर प्रस्तावित बड़ी फिल्म सिटी के अलावा लखनऊ, वाराणसी व आगरा में से किसी जगह एक अन्य छोटे आकार की फिल्म सिटी की स्थापना भी की जा सकती है।   यह फिल्म सिटी 200-250 एकड़ में बनाने की योजना है। आगरा में पहले एक फिल्म सिटी का निर्माण प्रस्तावित था। इसके लिए यूपीसीडा ने जमीन भी चिह्नित कर ली थी। इसका भी परीक्षण कराया जा रहा है। वाराणसी में पर्यटन विभाग की खाली पड़ी जमीन पर फिल्म सिटी बनाने के संबंध में अध्ययन कराया जा रहा है। लखनऊ के आसपास भी स्थान देखा जा रहा है। इसके लिए निर्माता, निर्देशक, कलाकार तथा फिल्म निर्माण से संबंधित अन्य लोगों के सुझावों के आधार पर फिल्म सिटी को मूर्त रूप देने की तैयारी है। फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि दिल्ली से नजदीक होने के कारण नोएडा, ग्रेटर नोएडा या यमुना एक्सप्रेस-वे पर फिल्म सिटी का निर्माण तो फायदेमंद रहेगा ही, जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट भी इसमें खासा मददगार साबित होगा।  गौर करने वाली बात यह है कि नई फिल्म नीति के तहत प्रदेश में फिल्म निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार की ओर से कई सहूलियतें दी जा रही हैं। प्रदेश में बनने वाली हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को लागत का 25 प्रतिशत या अधिकतम दो करोड़ रुपये अनुदान दिया जाता है। क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के लिए 50 प्रतिशत अनुदान का प्रावधान है। फिल्म में अगर प्रदेश के पांच कलाकार हैं तो 25 लाख रुपये अतिरिक्त व सभी कलाकार प्रदेश के हैं तो 50 लाख रुपये अतिरिक्त देने का प्रावधान है।   इसके अलावा शूटिंग की अनुमति के लिए जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में कमेटी गठित है। पर्यटन विभाग के होटलों व अन्य संपत्तियों में 25 प्रतिशत छूट की व्यवस्था है। प्रदेश में फिल्म निर्माण पर हर साल 150 से 200 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। फिल्म बंधु के सूत्रों के मुताबिक प्रदेश में डेढ़ करोड़ से लेकर 40-50 करोड़ रुपये तक के बजट की फिल्मों का निर्माण हो रहा है। योगी सरकार में 2017 से लेकर अब तक 38 फिल्मों को लगभग 21 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया है।    जहां तक बॉलीवुड में नेपोटिज्म का सवाल है तो पहले भी ऐसा देखने को मिला है और छुट-पुट विरोध होता रहा है। मगर ऐसा कभी भी देखने को नहीं मिला कि विवाद इतना बढ़ गया हो कि इंडस्ट्री में इनसाइडर और आउटसाइडर दो गुटों में बंटे नजर आए हों। खासकर सुशांत सिंह राजपूत के निधन ने सभी को हिला कर रख दिया है। अब बॉलीवुड में आउटसाइडर्स के संघर्ष को देखते हुए योगी की घोषणा जरुर रंग लायेगी। उनका यह कदम सकारात्मक है। जो लोग बिहार-उत्तर प्रदेश-झारखंड नॉर्थ के हिंदी बेल्ट के हैं उनके लिए तो वरदान साबित होगा। युवाओं को काम मिलेगा। लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा। इस भव्य फिल्म सिटी में एक ही छत के नीचे पूरी यूनिट होगी। पोस्ट प्रोडेक्शन से लेकर होटल तक सबकुछ होगा।   लाखों लोग इससे डायरेक्टली और इनडायरेक्टली जुड़ेंगे। जिस हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड साढ़ें पांच लाख लोगों को रोजगार देती है, वो अब उत्तर भारतीयों को मिलेगा। उनकी अपनी इंडस्ट्री होगी। यह फिल्म सिटी फिल्म निर्माताओं को एक बेहतर विकल्प उपलब्ध कराएगी।    आपकों जानकर दुख होगा कि आजकल बॉलीवुड में थाली पर जंग छिड़ी हुई है। लेकिन जनता की थाली में भोजन देने वाले किसान का जिक्र नहीं होता। जबकि बॉलीवुड का किसानों से पुराना नाता रहा है। बड़े-बड़े फिल्म अभिनेताओं ने किसानों की भूमिका निभाकर देश की जनता की खूब तालियां बटोरी हैं। इन्हीं किसानों की लीला से मुंबई में अपने आलीशान बंगले खड़े किए हैं। लेकिन अन्नदाता का हाल वैसा का वैसा है। क्योंकि ये कैमरे के सामने एकिं्टग नहीं करते। कई फिल्मों में किसानों के मुद्दे को बहुत प्रभावी तरीके से दिखाया गया है। वर्ष 1953 में किसानों की समस्या पर ’दो बीघा ज़मीन’ नामक एक फिल्म बनी थी। इसमें साहूकार के कर्ज से परेशान किसानों की हालत को दिखाया गया था। इसके बाद वर्ष 1957 में किसानों के हालात पर अपने जमाने की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम था मदर इंडिया। हमारे देश में किसान और उसका पूरा परिवार ब्याज, गरीबी और मेहनत के कभी ना ख़त्म होने वाले चक्रव्यूह में फंसा रहता है।  इस फिल्म ने किसानों की इसी मजबूरी को चित्रित किया। वर्ष 1967 में अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म उपकार में भी किसानों की दुर्दशा दिखाई गई। इस फिल्म का नायक किसान है और वो हमेशा गरीबी से ही जूझता रहता है। वर्ष 2001 में आजादी से पहले किसानों से लगान वसूलने की समस्या पर बनी एक फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम लगान था। लोगों ने इस फिल्म को बहुत पसंद किया और फिल्म को ऑस्कर नॉमिनेशन भी मिला था। पुराने जमाने में किसानों के मुद्दे और गांवों में साहूकार जैसी समस्याएं भारतीयों फिल्मों की पटकथाओं का हिस्सा रही थीं। लेकिन बदलते वक्त के साथ अब ये परंपरा बंद हो चुकी है। इसलिए किसानों का मुद्दा खबरों के साथ-साथ फिल्मों से भी गायब होता जा रहा है। परन्तु नयी फिल्म सिटी में क्षेत्रीय कलाकारों द्वारा बनने वाली फिल्मों में अब फिर सेसबकुछ देखने को मिल सकता है। ऐसा नहीं है कि बाॅलीवूड को नहीं पता है कि सरकारी मंडियों में किसानों के साथ क्या हो रहा है?

वैसे भी फिल्म निर्माता-निर्देशकों को शूटिंग के लिए राजस्थान की ऐतिहासिक इमारतें, उत्तराखंड की पहाड़ी वादियां और पंजाब के हरे-भरे खेत सहज ही आकर्षित करते हैं। चाहे काशी के घाट हो, चुनार का किला हो या आगरा का ताजमहल और आसपास का इलाका हो पूरे भारत की शान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या भी उन्हें लुभाता है। ऐसे में यमुना एक्सप्रेस-वे, ग्रेटर नोएडा व नोएडा के इर्द-गिर्द फिल्म सिटी बनने से निर्माता-निर्देशकों को उनकी पसंदीदा जगहों के लिए सीधा एप्रोच होने की वजह से उन्हें सुविधा भी रहेगी।

बता दें, दिल्ली से जुड़े नोएडा, ग्रेटर नोएडा व यमुना एक्सप्रेस-वे पर प्रस्तावित बड़ी फिल्म सिटी के अलावा लखनऊ, वाराणसी व आगरा में से किसी जगह एक अन्य छोटे आकार की फिल्म सिटी की स्थापना भी की जा सकती है। यह फिल्म सिटी 200-250 एकड़ में बनाने की योजना है। आगरा में पहले एक फिल्म सिटी का निर्माण प्रस्तावित था। इसके लिए यूपीसीडा ने जमीन भी चिह्नित कर ली थी। इसका भी परीक्षण कराया जा रहा है। वाराणसी में पर्यटन विभाग की खाली पड़ी जमीन पर फिल्म सिटी बनाने के संबंध में अध्ययन कराया जा रहा है। लखनऊ के आसपास भी स्थान देखा जा रहा है। इसके लिए निर्माता, निर्देशक, कलाकार तथा फिल्म निर्माण से संबंधित अन्य लोगों के सुझावों के आधार पर फिल्म सिटी को मूर्त रूप देने की तैयारी है। फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि दिल्ली से नजदीक होने के कारण नोएडा, ग्रेटर नोएडा या यमुना एक्सप्रेस-वे पर फिल्म सिटी का निर्माण तो फायदेमंद रहेगा ही, जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट भी इसमें खासा मददगार साबित होगा।

गौर करने वाली बात यह है कि नई फिल्म नीति के तहत प्रदेश में फिल्म निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार की ओर से कई सहूलियतें दी जा रही हैं। प्रदेश में बनने वाली हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को लागत का 25 प्रतिशत या अधिकतम दो करोड़ रुपये अनुदान दिया जाता है। क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के लिए 50 प्रतिशत अनुदान का प्रावधान है। फिल्म में अगर प्रदेश के पांच कलाकार हैं तो 25 लाख रुपये अतिरिक्त व सभी कलाकार प्रदेश के हैं तो 50 लाख रुपये अतिरिक्त देने का प्रावधान है।

इसके अलावा शूटिंग की अनुमति के लिए जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में कमेटी गठित है। पर्यटन विभाग के होटलों व अन्य संपत्तियों में 25 प्रतिशत छूट की व्यवस्था है। प्रदेश में फिल्म निर्माण पर हर साल 150 से 200 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। फिल्म बंधु के सूत्रों के मुताबिक प्रदेश में डेढ़ करोड़ से लेकर 40-50 करोड़ रुपये तक के बजट की फिल्मों का निर्माण हो रहा है। योगी सरकार में 2017 से लेकर अब तक 38 फिल्मों को लगभग 21 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया है।

जहां तक बॉलीवुड में नेपोटिज्म का सवाल है तो पहले भी ऐसा देखने को मिला है और छुट-पुट विरोध होता रहा है। मगर ऐसा कभी भी देखने को नहीं मिला कि विवाद इतना बढ़ गया हो कि इंडस्ट्री में इनसाइडर और आउटसाइडर दो गुटों में बंटे नजर आए हों। खासकर सुशांत सिंह राजपूत के निधन ने सभी को हिला कर रख दिया है। अब बॉलीवुड में आउटसाइडर्स के संघर्ष को देखते हुए योगी की घोषणा जरुर रंग लायेगी। उनका यह कदम सकारात्मक है। जो लोग बिहार-उत्तर प्रदेश-झारखंड नॉर्थ के हिंदी बेल्ट के हैं उनके लिए तो वरदान साबित होगा। युवाओं को काम मिलेगा। लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा। इस भव्य फिल्म सिटी में एक ही छत के नीचे पूरी यूनिट होगी। पोस्ट प्रोडेक्शन से लेकर होटल तक सबकुछ होगा।

लाखों लोग इससे डायरेक्टली और इनडायरेक्टली जुड़ेंगे। जिस हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड साढ़ें पांच लाख लोगों को रोजगार देती है, वो अब उत्तर भारतीयों को मिलेगा। उनकी अपनी इंडस्ट्री होगी। यह फिल्म सिटी फिल्म निर्माताओं को एक बेहतर विकल्प उपलब्ध कराएगी।

आपकों जानकर दुख होगा कि आजकल बॉलीवुड में थाली पर जंग छिड़ी हुई है। लेकिन जनता की थाली में भोजन देने वाले किसान का जिक्र नहीं होता। जबकि बॉलीवुड का किसानों से पुराना नाता रहा है। बड़े-बड़े फिल्म अभिनेताओं ने किसानों की भूमिका निभाकर देश की जनता की खूब तालियां बटोरी हैं। इन्हीं किसानों की लीला से मुंबई में अपने आलीशान बंगले खड़े किए हैं। लेकिन अन्नदाता का हाल वैसा का वैसा है। क्योंकि ये कैमरे के सामने एकिं्टग नहीं करते। कई फिल्मों में किसानों के मुद्दे को बहुत प्रभावी तरीके से दिखाया गया है। वर्ष 1953 में किसानों की समस्या पर ’दो बीघा ज़मीन’ नामक एक फिल्म बनी थी। इसमें साहूकार के कर्ज से परेशान किसानों की हालत को दिखाया गया था। इसके बाद वर्ष 1957 में किसानों के हालात पर अपने जमाने की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम था मदर इंडिया। हमारे देश में किसान और उसका पूरा परिवार ब्याज, गरीबी और मेहनत के कभी ना ख़त्म होने वाले चक्रव्यूह में फंसा रहता है।

इस फिल्म ने किसानों की इसी मजबूरी को चित्रित किया। वर्ष 1967 में अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म उपकार में भी किसानों की दुर्दशा दिखाई गई। इस फिल्म का नायक किसान है और वो हमेशा गरीबी से ही जूझता रहता है। वर्ष 2001 में आजादी से पहले किसानों से लगान वसूलने की समस्या पर बनी एक फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम लगान था। लोगों ने इस फिल्म को बहुत पसंद किया और फिल्म को ऑस्कर नॉमिनेशन भी मिला था। पुराने जमाने में किसानों के मुद्दे और गांवों में साहूकार जैसी समस्याएं भारतीयों फिल्मों की पटकथाओं का हिस्सा रही थीं। लेकिन बदलते वक्त के साथ अब ये परंपरा बंद हो चुकी है। इसलिए किसानों का मुद्दा खबरों के साथ-साथ फिल्मों से भी गायब होता जा रहा है। परन्तु नयी फिल्म सिटी में क्षेत्रीय कलाकारों द्वारा बनने वाली फिल्मों में अब फिर सेसबकुछ देखने को मिल सकता है। ऐसा नहीं है कि बाॅलीवूड को नहीं पता है कि सरकारी मंडियों में किसानों के साथ क्या हो रहा है?

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किस कदर शुक्रिया अदा करूँ उस खुदा का अल्फाज नहीं मिलते,मेरी कामयाबी इतनी खूबसूरत ना होती जो आप जैसे इंसान नहीं मिलते

Gepostet von Tejastoday.com am Freitag, 18. September 2020

दाह संस्कार को गई शव को पुलिस ने लिया कब्जे में | #TEJASTODAY पत्नी सहित ससुराली जनों ने लगाया हत्या का आरोप सुरेरी, जौनपुर। बीते रविवार की रात लगभग 8 बजे नेवढ़िया थाना क्षेत्र के दोदापुर गांव निवासी छविनाथ मिश्र के 40 वर्ष पुत्र विनय मिश्र की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। मृतक के परिजनों की मानें तो युवक पारिवारिक कलह को लेकर फांसी लगाकर आत्महत्या कर लिया था। वही घटना के बाद मृतक के परिजन बगैर किसी को सूचना दिए मृतक के शव को दाह संस्कार के लिए वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर लेकर पहुंच गए थे। किसी तरह से घटना की सूचना मायके गई पत्नी प्रतिमा को लगी तो उन्होंने घटना की सूचना पुलिस अधीक्षक जौनपुर सहित जिलाधिकारी जौनपुर को दी, और परिजनों के साथ पत्नी भी मणिकर्णिका घाट पहुंच गई। वही घंटों चले पंचायत के बाद नेवढ़िया पुलिस शव को कब्जे में लेकर थाने पर पहुंची और शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया। मृतक की पत्नी प्रतिमा का आरोप है कि परिवार जनों द्वारा युवक की हत्या की गई है, और उसे आत्महत्या का रूप दिया जा रहा है। वही मृतक के पत्नी का यह भी आरोप है कि जब वह अपने पिता दीनानाथ के साथ सोमवार को तहरीर देने नेवढ़िया थाने पहुची तो थानाध्यक्ष द्वारा फटकार लगाते हुए उन्हें थाने से भगा दिया गया। ग्रामीणों की माने तो मृतक अपने परिवार के साथ मुंबई में ही रहता था, लॉकडाउन के दौरान वह मुंबई से अपने घर आया हुआ था। मृतक की पत्नी रक्षाबंधन के पर्व पर अपने मायके गई हुई थी। मृतक को दो बच्चे हर्षीत 14 वर्ष, अंकिता 8 वर्ष है। इस संदर्भ में थानाध्यक्ष नेवढ़िया संतोष राय ने बताया कि पत्नी की शिकायत पर मृतक के शव को कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद आवश्यक कार्रवाई की जाएगी।

सम्पूर्ण समाधान दिवस का हुआ आयोजन | #TEJASTODAY चंदन अग्रहरि शाहगंज, जौनपुर। स्थानीय तहसील सभागार में सम्पूर्ण समाधान दिवस का आयोजन सीडीओ अनुपम शुक्ला की अध्यक्षता में हुआ। जिसमें फरियादियों द्वारा कुल 47 प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया गया। जिसमें मौके पर 11 प्रार्थना-पत्रों का निस्तारण हुआ। शेष प्रार्थना पत्र सम्बन्धित विभाग को सौंप दिया गया। वहीं कोरोना संक्रमण के चलते बिना मास्क के किसी भी फरियादी को प्रवेश नहीं करने दिया गया। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया गया। इस दौरान प्रमुख रुप उपजिलाधिकारी राजेश कुमार वर्मा, तहसीलदार अभिषेक राय, क्षेत्राधिकारी जितेन्द्र दूबे, वीडीओ सोंधी अनुराग राय, कस्बा कानूनगो नीरज सिंह आदि मौजूद रहे।

स्वरोजगार के लिये आनलाइन आवेदन आमंत्रित |#TEJASTODAY जौनपुर। साहब सरन रावत उपायुक्त उद्योग जिला उद्योग प्रोत्साहन तथा उद्यमिता विकास केन्द्र ने बताया कि जनपद के युवा/युवतियों को उत्तर-प्रदैश सरकार द्वारा विशेष योजना एम०एस०एम०ई० के अन्तर्गत मुख्यमंत्री युवा स्वरोजगार योजना हेत आनलाइन आवेदन के लिये पात्रता हाईस्कूल पास एवं आयु सीमा १८ से ४० वर्ष के बीच होनी चाहिए। निर्माण व सेवा क्षेत्र में उद्योग स्थापित करने हेतु ऋण की सीमा १.०० लाख से २५.०० लाख तक है जिसमें आवेदक को २५ प्रतिशत अनुदान/छूट प्रदान की जायेगी। अधिक जानकारी के हेतु तहसीलवार सहायक प्रबन्धक/क्षेत्रीय सहायक शाहगंज व बदलापुर जय प्रकाश, ७००७६३७०६३, सदर व केराकत राजेश राही ९४५०३८८०८७, ७८८०३९६००१ एवं मडियाहूॅ व मछलीशहर राजेश भारती ७३९८२७८६७७, ७००७७२०३५८ से सम्पर्क करें। अन्य जानकारी के लिये किसी भी कार्य दिवस में कार्यालय आकर सम्पर्क किया जा सकता है।

पारिवारिक कलह से क्षुब्ध होकर युवक ने ​खाया जहरीला पदार्थ | #TEJASTODAY चंदन अग्रहरि शाहगंज, जौनपुर। क्षेत्र के पारा कमाल गांव में पारिवारिक कलह से क्षुब्ध होकर बुधवार की शाम युवक ने किटनाशक पदार्थ का सेवन कर लिया। आनन फानन में परिजनों ने उपचार के लिए पुरुष चिकित्सालय लाया गया। जहां पर चिकित्सकों ने हालत गंभीर देखते हुए जिला चिकित्सालय रेफर कर दिया। क्षेत्र के पारा कमाल गांव निवासी पिंटू राजभर 22 पुत्र संतलाल बुधवार की शाम पारिवारिक कलह से क्षुब्ध होकर घर में रखा किटनाशक पदार्थ का सेवन कर लिया। हालत गंभीर होने पर परिजन उपचार के लिए पुरुष चिकित्सालय लाया गया। जहां पर हालत गंभीर देखते हुए चिकित्सकों बेहतर इलाज के लिए जिला अस्पताल रेफर कर दिया।

कोरोना संक्रमण के चलते 19 सितम्बर तक न्यायिक कार्य ठप्प | #TEJASTODAY मछलीशहर, जौनपुर। स्थानीय तहसील के अधिवक्ताओं ने बैठक कर कोरोना संक्रमण को मद्देनजर 19 सितम्बर तक न्यायिक कार्य ठप्प रखने का निर्णय लिया है। अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष प्रेम बिहारी यादव की अध्यक्षता में शुक्रवार को साधारण सभा की बैठक बुलाई गई। बैठक में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि कोरोना संक्रमण के बढ़ते प्रभाव को देखते हुये अधिवक्ता 19 सितम्बर तक न्यायिक कार्य से विरत रहेंगे। इस मौके पर अधिवक्ताओं ने कहा कि तहसील में वादकारियों व अधिवक्ताओं की बढ़ती भीड़ के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो पा रहा है जिसके कारण संक्रमण का बराबर खतरा बना हुआ है। ऐसी स्थिति में एहतियात के तौर पर यह निर्णय अति आवश्यक है। बैठक में महामंत्री अजय सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता दिनेश चंद्र सिन्हा, अशोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र मणि शुक्ला, जगदंबा प्रसाद मिश्र, नागेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव, विनय पाण्डेय, हरि नायक तिवारी, वीरेंद्र भाष्कर यादव, मनमोहन तिवारी आदि उपस्थित रहे।

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