Article : यूपी फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? | #TEJASTODAY
फिरहाल, यूपी में फिल्म सिटी के निर्माण की बातें कहकर योगी आदित्यनाथ ने उन सितारों की हसरत पूरी कर दी, जो बरसों से ये आवाज उठा रहे थे कि हमारे सूबे में ही हमारे सिनेमा का सबसे बड़ा मंच हो। ताकि हमें किसी दूसरी जगह जाकर भेदभाव का शिकार न होना पड़े। अब जब ये ऐलान हुआ है तो अपनी माटी से जुड़े सितारे तो खुश हैं ही, यूपी के लोग भी गदगद है। उनका मानना हे कि इससे फिल्मी दुनिया का विस्तार होगा, रोजगार बढ़ेगा। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या यूपी फिल्म सीटी से बढ़ेगी हिन्दी की ताकत? क्या बॉलीवुड का बटवारा होगा? क्या हिंदी फिल्मों के लिए जमीन भी हिंदी चाहिए? क्या यूपी की फिल्म सिटी से बाॅलीवूड के नेपोटिज्म को मिलेगा जवाब? क्या मुंबई के लिए चुनौती बन सकती है यूपी की फिल्म सिटी?नई फिल्म सिटी से बॉलीवुड के झगड़े का होगा निपटारा?
सुरेश गांधी
हो जो भी हकीकत तो यही है कि अभिनेता सुशांत सिंह की मौत के बाद बॉलीवुड में चल रही खेमेबंदी और उठापटक को देखते हुए यूपी सरकार के अगुआ योगी आदित्यनाथ की से बड़ी फिल्म सिटी बनाने की घोषणा काफी कारगर साबित हो सकती है। राजनीतिक लिहाज से भी बॉलीवुड में ड्रग एंगल पर देशव्यापी चर्चा और महाराष्ट्र में मचे बवाल के बीच योगी का यह बड़ा दांव है। या यूं कहे योगी का ये ऐलान यूपी सहित पूरे उत्तर भारत के फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के लिए बड़ी सौगात हैं। देखा जाएं तो हाल के दिनों में चाहे वो छोटे शहरों की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में रही हो या भोजपुरी फिल्में काफी सफल रही हैं।
इस लिहाज से भी यूपी में फिल्म सिटी के लिए काफी संभावनाएं हैं। खास बात यह है कि यूपी में फिल्म सिटी बनने से प्रदेश समेत पूरे उत्तर भारत के नए कलाकारों को भेदभाव का शिकार नहीं होना पड़ेगा। उन्हें मुंबई की बाॅलीवूड के नेपोटिज्म का कोपभाजन नहीं बनना पडेगा। अभिनेत्रियों को मीट-टू का दंश नहीं झेलना पड़ेगा। कैरियर खत्म कर देने वाली ड्रग्स के लत से मुक्ति मिलेगी। हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा। लोग अपनी माटी, अपन संस्कृति, अपनी दिनचर्या व क्षेत्रीय धरोहरों, किसानों, बलिदानियों, स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को उसी अंदाज में रुपहले पर्दे पर देख सकंेंगे। फिल्म सिटी बनने के बाद फिल्म से जुड़े कई लोगों को रोजगार मिलेगा। एक डिजाइनर होंगे, फिल्म आर्टिस्ट होंगे, लेखन से जुड़े लोग होंगे, डायरेक्टर प्रोड्यूसर होंगे, रोजगार का बहुत बड़ा माध्यम होगा। हिंदी पट्टी में फिल्म सिटी आने से पर्यटन को तो बढ़ावा मिलेगा ही, नई-नई प्रतिभाओं को भी संवरने को मौका मिलेगा।
वैसे भी फिल्म निर्माता-निर्देशकों को शूटिंग के लिए राजस्थान की ऐतिहासिक इमारतें, उत्तराखंड की पहाड़ी वादियां और पंजाब के हरे-भरे खेत सहज ही आकर्षित करते हैं। चाहे काशी के घाट हो, चुनार का किला हो या आगरा का ताजमहल और आसपास का इलाका हो पूरे भारत की शान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या भी उन्हें लुभाता है। ऐसे में यमुना एक्सप्रेस-वे, ग्रेटर नोएडा व नोएडा के इर्द-गिर्द फिल्म सिटी बनने से निर्माता-निर्देशकों को उनकी पसंदीदा जगहों के लिए सीधा एप्रोच होने की वजह से उन्हें सुविधा भी रहेगी।
बता दें, दिल्ली से जुड़े नोएडा, ग्रेटर नोएडा व यमुना एक्सप्रेस-वे पर प्रस्तावित बड़ी फिल्म सिटी के अलावा लखनऊ, वाराणसी व आगरा में से किसी जगह एक अन्य छोटे आकार की फिल्म सिटी की स्थापना भी की जा सकती है। यह फिल्म सिटी 200-250 एकड़ में बनाने की योजना है। आगरा में पहले एक फिल्म सिटी का निर्माण प्रस्तावित था। इसके लिए यूपीसीडा ने जमीन भी चिह्नित कर ली थी। इसका भी परीक्षण कराया जा रहा है। वाराणसी में पर्यटन विभाग की खाली पड़ी जमीन पर फिल्म सिटी बनाने के संबंध में अध्ययन कराया जा रहा है। लखनऊ के आसपास भी स्थान देखा जा रहा है। इसके लिए निर्माता, निर्देशक, कलाकार तथा फिल्म निर्माण से संबंधित अन्य लोगों के सुझावों के आधार पर फिल्म सिटी को मूर्त रूप देने की तैयारी है। फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि दिल्ली से नजदीक होने के कारण नोएडा, ग्रेटर नोएडा या यमुना एक्सप्रेस-वे पर फिल्म सिटी का निर्माण तो फायदेमंद रहेगा ही, जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट भी इसमें खासा मददगार साबित होगा।
गौर करने वाली बात यह है कि नई फिल्म नीति के तहत प्रदेश में फिल्म निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार की ओर से कई सहूलियतें दी जा रही हैं। प्रदेश में बनने वाली हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को लागत का 25 प्रतिशत या अधिकतम दो करोड़ रुपये अनुदान दिया जाता है। क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के लिए 50 प्रतिशत अनुदान का प्रावधान है। फिल्म में अगर प्रदेश के पांच कलाकार हैं तो 25 लाख रुपये अतिरिक्त व सभी कलाकार प्रदेश के हैं तो 50 लाख रुपये अतिरिक्त देने का प्रावधान है।
इसके अलावा शूटिंग की अनुमति के लिए जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में कमेटी गठित है। पर्यटन विभाग के होटलों व अन्य संपत्तियों में 25 प्रतिशत छूट की व्यवस्था है। प्रदेश में फिल्म निर्माण पर हर साल 150 से 200 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। फिल्म बंधु के सूत्रों के मुताबिक प्रदेश में डेढ़ करोड़ से लेकर 40-50 करोड़ रुपये तक के बजट की फिल्मों का निर्माण हो रहा है। योगी सरकार में 2017 से लेकर अब तक 38 फिल्मों को लगभग 21 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया है।
जहां तक बॉलीवुड में नेपोटिज्म का सवाल है तो पहले भी ऐसा देखने को मिला है और छुट-पुट विरोध होता रहा है। मगर ऐसा कभी भी देखने को नहीं मिला कि विवाद इतना बढ़ गया हो कि इंडस्ट्री में इनसाइडर और आउटसाइडर दो गुटों में बंटे नजर आए हों। खासकर सुशांत सिंह राजपूत के निधन ने सभी को हिला कर रख दिया है। अब बॉलीवुड में आउटसाइडर्स के संघर्ष को देखते हुए योगी की घोषणा जरुर रंग लायेगी। उनका यह कदम सकारात्मक है। जो लोग बिहार-उत्तर प्रदेश-झारखंड नॉर्थ के हिंदी बेल्ट के हैं उनके लिए तो वरदान साबित होगा। युवाओं को काम मिलेगा। लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा। इस भव्य फिल्म सिटी में एक ही छत के नीचे पूरी यूनिट होगी। पोस्ट प्रोडेक्शन से लेकर होटल तक सबकुछ होगा।
लाखों लोग इससे डायरेक्टली और इनडायरेक्टली जुड़ेंगे। जिस हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड साढ़ें पांच लाख लोगों को रोजगार देती है, वो अब उत्तर भारतीयों को मिलेगा। उनकी अपनी इंडस्ट्री होगी। यह फिल्म सिटी फिल्म निर्माताओं को एक बेहतर विकल्प उपलब्ध कराएगी।
आपकों जानकर दुख होगा कि आजकल बॉलीवुड में थाली पर जंग छिड़ी हुई है। लेकिन जनता की थाली में भोजन देने वाले किसान का जिक्र नहीं होता। जबकि बॉलीवुड का किसानों से पुराना नाता रहा है। बड़े-बड़े फिल्म अभिनेताओं ने किसानों की भूमिका निभाकर देश की जनता की खूब तालियां बटोरी हैं। इन्हीं किसानों की लीला से मुंबई में अपने आलीशान बंगले खड़े किए हैं। लेकिन अन्नदाता का हाल वैसा का वैसा है। क्योंकि ये कैमरे के सामने एकिं्टग नहीं करते। कई फिल्मों में किसानों के मुद्दे को बहुत प्रभावी तरीके से दिखाया गया है। वर्ष 1953 में किसानों की समस्या पर ’दो बीघा ज़मीन’ नामक एक फिल्म बनी थी। इसमें साहूकार के कर्ज से परेशान किसानों की हालत को दिखाया गया था। इसके बाद वर्ष 1957 में किसानों के हालात पर अपने जमाने की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम था मदर इंडिया। हमारे देश में किसान और उसका पूरा परिवार ब्याज, गरीबी और मेहनत के कभी ना ख़त्म होने वाले चक्रव्यूह में फंसा रहता है।
इस फिल्म ने किसानों की इसी मजबूरी को चित्रित किया। वर्ष 1967 में अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म उपकार में भी किसानों की दुर्दशा दिखाई गई। इस फिल्म का नायक किसान है और वो हमेशा गरीबी से ही जूझता रहता है। वर्ष 2001 में आजादी से पहले किसानों से लगान वसूलने की समस्या पर बनी एक फिल्म आई थी। इस फिल्म का नाम लगान था। लोगों ने इस फिल्म को बहुत पसंद किया और फिल्म को ऑस्कर नॉमिनेशन भी मिला था। पुराने जमाने में किसानों के मुद्दे और गांवों में साहूकार जैसी समस्याएं भारतीयों फिल्मों की पटकथाओं का हिस्सा रही थीं। लेकिन बदलते वक्त के साथ अब ये परंपरा बंद हो चुकी है। इसलिए किसानों का मुद्दा खबरों के साथ-साथ फिल्मों से भी गायब होता जा रहा है। परन्तु नयी फिल्म सिटी में क्षेत्रीय कलाकारों द्वारा बनने वाली फिल्मों में अब फिर सेसबकुछ देखने को मिल सकता है। ऐसा नहीं है कि बाॅलीवूड को नहीं पता है कि सरकारी मंडियों में किसानों के साथ क्या हो रहा है?
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किस कदर शुक्रिया अदा करूँ उस खुदा का अल्फाज नहीं मिलते,मेरी कामयाबी इतनी खूबसूरत ना होती जो आप जैसे इंसान नहीं मिलते
Gepostet von Tejastoday.com am Freitag, 18. September 2020